बिक्री बढ़ाने के लिए मार्केटिंग एजेंसियां न्यूरो-साइंटिस्ट की मदद लेती हैं, उपभोक्ता के डर और यादों जैसी बातों का ध्यान रखती हैं

ई-कॉमर्स कंपनियां और खुदरा व्यापारी छुटिट्यों में अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाते हैं। अगर हम ज्यादा खरीदारी से बचने के लिए नए तरीके निकालते हैं तो कंपनियां बिक्री बढ़ाने के लिए हम से कई कदम आगे चलती हैं। दुनियाभर की मार्केटिंग एजेंसियां न्यूरो-साइंटिस्ट नियुक्त करती हैं, जो इस बात का पता लगाते हैं कि खरीदारी के वक्त निर्णय प्रक्रिया में प्रत्येक बिंदु पर उपभोक्ता के दिमाग में क्या चल रहा है। 


अमेरिका की लॉन्गवुड यूनिवर्सिटी की न्यूरोस्टडीज की डायरेक्टर कैथरीन फ्रैनसिन कहती हैं कि अक्सर हम जरूरत न होने पर भी कंपनियों के झांसे में फंस कर ज्यादा खरीदारी कर लेते हैं। हमारे खरीदारी के निर्णय में डर हमारा मुख्य प्रेरक होता है।


विज्ञापन विचलित करते हैं
उपभोक्ताओं को डर होता है कि कहीं अच्छी डील छोड़ तो नहीं रहे या इसी चीज के लिए आगे हमें ज्यादा पैसे तो नहीं देने पड़ जाएंगे। कंपनियां इस डर का अच्छे से इस्तेमाल करती हैं। आम तौर पर, हमारे दिमाग का प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स चीजों के प्रति हमारी भावनात्मक प्रतिक्रियांओं को नियंत्रित करता है और हमारे डर को शांत करके हमें तर्कहीन कार्य करने से रोकता है। लेकिन विज्ञापनदाता हमारे प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स को विचलित करता है। वह हमें तरह तरह के ऑफर से यह समझाता है कि कैसे आप इस चीज को खरीद कर पैसा बचा सकते हैं और इससे और दूसरी चीजें खरीद सकते हैं।


यादों के कारण खरीदते गैर जरूरी चीजें
छुटिट्यों में हम नॉस्टेल्जिया में ज्यादा जीते हैं। पुरानी घटनाओं को याद करते हैं और मुख्यत: यह एक भावनात्मक प्रभाव होता है। हम बचपन की यादों से जुड़ी चीजें या पुरानी घटनाओं से संबंधित कुछ खरीद कर खुश होते हैं। कंपनियां अपने विज्ञापन में इसका इस्तेमाल करती हैं और हमारी इस भावना को खरीदारी में बदलती हैं। इस तरह हम गैरजरूरी चीज खरीद लेते हैं।


खरीदारी में सामाजिक प्रभाव की भूमिका
कैथरिन के मुताबिक हमारे खरीदने की निर्णय प्रक्रिया में सामाजिक प्रभाव का भी बड़ा रोल होता है। कंपनियां इसका भी इस्तेमाल करती हैं। जैसे हम कोई गिफ्ट खरीदने जाते हैं तो सोचते हैं कि अगर महंगा गिफ्ट देंगे तो ज्यादा महत्व होगा। हम खुद को यह सोचकर धोखा देते हैं कि अगर हम किसी चीज के लिए प्रीमियम का भुगतान करते हैं, तो यह बेहतर होना चाहिए। जैसे हम सामान्य चीजों में भी ब्रांड ढूंढ़ने लगते हैं। छुटिट्यों में हमारे ब्रांड या लेबल ढूंढने की संभावना ज्यादा होती है। मार्केटिंग एजेंसियां हमारी इसी मानसिकता का इस्तेमाल करती हैं।